शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

सुनो-सुनो गन्ने का गम

हम गुड़ और चीनी खाते हैं। शराब पीते हैं। कागजों पर लिखते हैं। लेकिन गन्ने को नही समझते। जिस फसल में मिठास है, नशा है और साक्षात लक्ष्मी व सरस्वती का वास है, उस फसल की यह तौहीन। समझ से परे है. इसी दशहरे की बात है। गन्ने का पूजन होना था। बाजार गया। एक गन्ना पांच रूपये का मिला। चीनी लेने निकले तो 36 रूपये किलो थी। एक क्विंटल गन्ने में करीब दो सौ गन्ने चढ़ते हैं। हिसाब लगाया तो एक हजार रूपये क्विंटल कीमत बैठी। चीनी 3600 रूपये क्विंटल थी। सुना है,कागज के दाम भी आसमान छू रहे हैं। पेपर मालिक सरकार से इस पर रियायत मांग रहे हैं। सरकार का इरादा भी है। हो सकता है कि करम हो जाए।मैं बता दूं कि मैं किसान परिवार से नहीं हूं। लेकिन गन्ना किसानों का दर्द करीब से देखा है। जब केंद्र सरकार ने गन्ने की कीमत 130 (129.84 रूपये) लगाई तो सोच में पड़ गया। किसान क्या बोएगा, क्या कमाएगा और क्या खाएगा। अगर वह पटरी पर गन्ना बेचे तो भी शायद उसको उचित दाम मिल जाए। लेकिन सरकार तो देने से रही। सरकार ने यह कीमत किस आधार और किस मानक से लगाई है, समझ से परे है। फुटकर में गन्ना एक हजार रूपये क्विंटल और चीनी 3600 रूपये क्विंटल। और गन्ना 130 रूपये। फिर भी नारा-जय किसान। जितना सस्सा गन्ना है, उतना सस्ता तो इंसान भी नहीं। किसान की पीड़ा पर हम मौन क्यों हैं। हम उसको अपना क्यों नहीं समझते। हम उसको वाजिब मूल्य देने से क्यों कतराते हैं। हम मकान बेचते हैं तो अपनी संपत्ति की कीमत खुद लगाते हैं। सरकार ने सर्किल रेट तय कर रखे हैं। इस पर रजिस्ट्री तो होती है लेकिन क्रय-विक्रय नहीं होता। यह सरकार की संपत्ति का भी हाल है। बाजार में जाते हैं तो हम नही कहते कि लाला जी, तुम्हारे माल की कीमत यह है। हम मोलभाव अवश्य करते हैं। हम अपना लाभ देखते हैं और व्यापारी अपना लाभ देखता है। परता खाया तो सौदा पट जाता है। लेकिन गन्ना किसान बोता है, उसके माल की कीमत सरकार लगाती है। चंद चीनी मिल मालिक और उनके पिछलग्गू नेता तय करते हैं कि किसान की फसल की कीमत क्या हो। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां चंद लोग ही आवाम का फैसला करते हैं। ओबामा मे पूरी दुनिया का अक्स देखने लगते है। आसमान सिर पर उठा लेते हैं। अपनों को गिरा देते हैं। सागर में मोती नहीं तलाश करते। मोती हाथ लग जाए तो उससे ही पूछते हैं...सागर कितना गहरा है। पूरे देश में मिल मालिक दो सौ से अधिक नहीं होंगे। कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे राजनीतिक दलों की भी तादाद इससे अधिक नहीं होगी। लेकिन यह हमारे भाग्य निर्माता हैं। मुश्किल यह है कि अपने देश में 15फीसदी लोग 85 फीसदी लोगों का भाग्य तय करते हैं। कहा जाता है कि इंसान का भाग्य भगवान लिखता है और किसान अपना भाग्य खुद लिखता है। यानी भगवान ने भी किसान को भगवान ही माना है। लेकिन कया यह हकीकत है।कुछ और कड़वी हकीकत देखिए। गुड़ और चीनी का निर्माता किसान गन्ना बेचने के बाद हमारे और आपकी तरह एक उपभोक्ता ही है। वह बाजार से उसी मोल से चीनी और गुड़ लाता है, जो आप लाते हैं। उनको रियायत नहीं होती। लेकिन मिल मालिक के घर इस मोल से चीनी नहीं आती। उसके तो घर का माल है। अगर चीनी उसका घर का माल है तो गन्ना किसान का घर का माल क्यों नहीं है। जब और लोग अपने माल की कीमत खुद लगा सकते हैं तो किसान को यह अधिकार क्यों नहीं है। सरकार ने फसलों के दाम तय करने के लिए आयोग बनाए, लेकिन क्या रेट इनकी सिफारिशों से तय होते हैं। अपने देश मे गन्ने का दाम लगाते हैं-शरद पंवार। कृषि मंत्री। जिनकी खुद की चीनी मिले हैं। किसान राजनीति पर आइये। किसान राजनीति के मुद्दे पर समूचा विपक्ष एक है। जिनको गन्ने की समझ है, वे भी और नासमझ भी। उनको किसान एक वोट बैंक के रूप में दिख रहा है। दिखता रहा है और आगे भी दिखता रहेगा।भारतीय किसान यूनियन के उदयकाल मे किसानों को उम्मीद जगी थी कि अब अऱाजनैतिक यह संगठन उनकी मदद करेगा। महाभारत का दृष्टांत देखिए। अर्जुन जब रणक्षेत्र मे था तो वह आवाक सा था। कृष्ण ने पूछा-क्या देख रहे हो। अर्जुन ने कहा-सोच रहा हूं। कौन अपना है कौन पराया। किसको मारना है और क्यों मारना है। यह सभी तो अपने हैं। किसानों के साथ भी यही तो हुआ। जिनको उसने अपना समझा, वह कौरव निकले। टिकैत को भी राजनीति का चस्का लग गया। अब तो वह अपने बेटे राकेश टिकैत को एडजेस्ट करने में लगे हैं। टिकट नहीं मिला तो बगावत। सम्मान नहीं मिला तो बगावत। भाकियू का किसान खो गया। दिल्ली में चार दिन धरना दिया, लेकिन भीड़ लायी गई पूर्वांचल से। पश्चिम को क्या हुआ। नहीं पता। जैसी भीड़ कभी टिकैत के साथ देखी जाती थी, वह चौधरी अजित सिंह के साथ हो ली। हाईफाई पालिटिकल ड्रामा हुआ। धरने पर विपक्षी नेता आए। कुछ दूर रहे। कुछ संसद में रहे। शोर हुआ। हंगामा हुआ। भाषण हुए। दिल्ली हिली। दिल्ली डोली। दिल्ली बोली-देखेंगे। विजयमुद्रा में किसान लौट आया। मांगने गया था दाम। बात खत्म हो गई एफएंडआरपी पर। अजित सिंह भी खुश। ताकत दिखा दी। रालोद के कांग्रेस में विलय की बात कहने वालों को झटका दे दिया। कांग्रेस को अहसास दिला दिया कि रालोद में कितनी ताकत है। अजित पहली बार लीडर की शक्ल में थे। उनके पीछे थे मुलायम सिंह। टीवी (धरने पर नही) पर थे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह। मानो पूरा विपक्ष एक था। लेकिन....यक्ष प्रश्न अपनी जगह है-गन्ना किसान को क्या मिलेगा। 280, 250, 225, 200 या बोनस के साथ सिर्फ 180 रूपये। यह अभी तय नहीं। हो सकता है कि इस आंदोलन के बाद अजित या जयंत मंत्री बन जाएं लेकिन वजीरों की वजारत में क्या गारंटी कि किसान फकीर नहीं बनेगा। उसको वाजिब दाम मिलेगा।सचमुच....किसान हर दम हारा। हर दिन रीता।सूर्यकांत द्विवेदी
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